भटकती चुड़ैल

बुधवार, 1 जुलाई 2020

भटकती चुड़ैल

भटकती चुड़ैल


                                                 अध्याय (1):- दोस्त की शादी                

 आज की दुनियां में किसी समझदार व्यक्ति से किसी भूत-प्रेत, चुड़ैल, डायन के विषय मे बात करो तो वह सामने वाले शख्स को सनकी या अंधविश्वासी करार दे देता है। वहीं दूसरी तरफ किसी ऐसे शख्स से पूछिए जो ऐसे वाक्ये से  गुजर चुका हो तो वो आपको अपने और उस खौफ़नाक घटना के अनुभव को बड़ी ही बेबाकी से आपको सुनाते है बशर्ते सामने वाले को उसकी बातों पर विश्वास करना ही पड़ेगा।

लेकिन यकीन मानिए आज भी इन आत्माओं का वर्चस्व कायम है, बस अंतर इतना रह गया है कि यह अब शहर से दूरस्थ इलाके,जहां आवाजाही कम हो, बाग-बगीचे, बँसवाड़ी, नहर के पुलिया के पास, पीपल के पेड़ के पास आज भी अपना अधिपत्य जमा कर बैठे हुए हैं।

जयन्त कुमार श्रीवास्तव 21 वर्ष का नवयुवक है औऱ शारीरिक रूप से पतला है लेकिन कमजोर नहीं है। इसकी 5 फुट 3 इंच की औसत ऊंचाई थी। इसके परिवार के सदस्य स्नेह से जय पुकारते थे तो वहीं दूसरी तरफ इसके जिगरी दोस्त इसे यंत्र के नाम से चिढ़ाते थे।

इसके गाँव का नाम अरंद है जो उत्तर प्रदेश राज्य के मिर्जापुर जिले में पड़ता है। इसके गाँव की सबसे अहम बात यह है कि यह शहर के आपाधापी से कोसो दूर था। यह मिर्जापुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां के लोगो को किसी भी तरह का तनाव नहीं था। सभी अपनी जीवन को खुशहाली से जीवन यापन कर रहे थे।

यह बात लगभग 4 वर्ष पुरानी ही है। अनिल कुमार की आज शादी थी जो कि आज शाम 7 बजे अरंद गांव  से 32 किलोमीटर दूर मुंदीपूर में बारात जानी थी। अनिल कुमार, राजीव रंजन और जयन्त कुमार श्रीवास्तव तीनो ने अंतिम वर्ष ही स्नातक तक कि पढ़ाई एक साथ पूरी की थी। तीनों एक ही गांव के थे इस वजह से घनिष्ठता थी।

जयन्त बारात में जाने के लिए कपड़े इस्त्री कर ही रह था कि अभी उसका मित्र राजीव रंजन जयन्त के घर आया और बोला, “क्यों हीरो हो गई तैयारी?”

यह सुनते जयन्त इस्त्री को दीवार के सहारे रखते हुए कहा- "कैसी तैयारी?"

"अरे शाम को बारात में चलना है या नहीं?"

जयन्त- "अभी शाम होने में बहुत वक़्त है!"
राजीव रंजन- "मेरी समझ मे नहीं आ रहा कैसे चले?

जयन्त- "मैं भी तो यही सोच रहा हूँ क्योंकि कल सुबह जल्दी भी आना है।"
राजीव रंजन- "इसमे इतनी सोचने वाली क्या बात है? शाम को बारात तेरी बाइक से चल लेंगे?"

जयन्त- "चल तो लेंगे लेकिन मेरी बाइक में बस पैट्रोल पंप तक जाने तक ही पैट्रोल होगा।"

राजीव रंजन- "देख फिर क्यों न ऐसा करें कि बाइक से ही दोनों चलते हैं और पेट्रोल की कीमत दोनों आधी आधी कर लेंगे।"

जयन्त बोला- "हम्म यह उपाय सही रहेगा क्योंकि कल सुबह मेरा जल्दी आना ज़्यादा ज़रूरी भी हैं।"

यह सुनने के बाद उसने 50  का नोट उसे थमाया और उसने वह अपने अपने पास सुरक्षित रख लिए। फिर थोड़ी देर में वह भी कुछ आवश्यक काम का हवाला देते हुए वहां से चलता बना। 

उसके बताए हुए योजना के अनुसार जयन्त ठीक शाम सात बजे उसके घर पहुंच जाता हूँ। जयन्त उसको वहां न पाकर हस्तप्रबढ रह जाता है। उसके घर वालों से पूछने पर पता लगता है कि अभी थोड़ी देर पहले गांव का ही कोई व्यक्ति आया था शायद वह उसी से साथ  लगभग आधे घंटे पहले बारात के लिए निकल गया है।

जयन्त जेब से मोबाइल निकालकर उसको कॉल लगाता है तो उसका नम्बर आउट ऑफ नेटवर्क एरिया बताता है। मैं 2-3 बार और कोशिश करता है और खीझकर मोबाइल जेब डाल लेता है और उसे कोसता है- "ये राजीव रंजन है या कोई दन्त मंजन। जब इसे कहा था कि ठीक 7 बजे चलना है तो यह किसके साथ चल गया? उसे यदि जाना ही था तो कम से कम बता तो देना चाहिए था। साले का नम्बर भी नहीं लग रहा।"

यह कहते हुए उसने बाइक की चाभी घुमाई और कलाई घुमा के वक़्त देखा तो घड़ी 8 बजने का इशारा कर रही थी। उसने बाइक स्टार्ट कर के अकेले ही अरंद से मुंदीपूर अपनी दुपहिया से ही निकल पड़ा।

अगले चालीस मिनट के अंदर ही वह मुंदीपूर गांव आ चुका था। उसने देखा कि सड़क के किनारे रंग बिरंगे रौशनी के साथ एक कतार में कुछ लोग बिजली के लैंप को ढो रहे थे जो कि आर्केस्ट्रा वाले को उस अंधेरे में रास्ता दिखाने का बखूबी काम निभा रहे थे। आर्केस्टा के आगे आगे गांव के कुछ लोग रंग बिरंगे परिधानों में अपने नृत्य का कौशल दिखाने में मशगूल थे। इनमें कुछ लोग वो भी थे जिन्हें आजतक अपनी नृत्य की अद्वितीय प्रतिभा दिखाने का कभी अवसर नहीं मिला था और इस मौके को वो अच्छी तरह से भुना रहे थे।

वहीं एक युवाओं की एक टोली सड़क पर लेट कर अपनी कमर को बार बार उठा रहे थे तो वहीं 2 से 3 लोग उसकी कमर के ऊपर अपने हाथों से फन बनाए फूंफकर रहे थे मानो जैसे खुद को नागराज समझ रहे हों और अपनी नागिन के मौत का इंतकाम ले रहे हों। इतनी ठंड मे सड़क पर लेट कर ऐसी अद्भुत कला का प्रदर्शन करना आम बात तो बिलकुल नहीं हो सकती थी। वैसे भी यदि बारात मे नागिन डांस ना हो तो वह डांस अधूरा सा ही प्रतीत होता है।

इसमे से कुछ अधेड़ उम्र के व्यक्ति हाथों से इशारा कर कर के आने जाने वाली गाड़ियों पर हुक्म चलाते और उन्हें अपने हिसाब से रास्ता भी दिखाने का काम करने में लगे हुए थे। सभी अपने धुन में मस्त थे थे वहीं दूसरी तरफ अनिल कुमार जो सुनहरे रंग के शेरवानी और कत्थई रंग के पगड़ी के साथ में सफेद घोड़ी पर बैठे मुंह को लटकाए धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। मानो जैसे कह रहा हो कि इसकी बर्बादी पर इसे छोड़कर सभी जश्न मना रहे हो और उसकी व्यथा सुनने वाला कोई नहीं है। अनिल जानता था की विवाह का फैसला उसने दबाव में आ कर लिया है लेकिन वह अब कुछ भी नहीं कर सकता था क्योंकि अब बहुत देर हो गयी थी।

इन सभी व्यक्तियों से जब जयन्त की नजर हटी और उसने बड़े ध्यान से सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए देखा तो उसे राजीव रंजन कहीं भी नजर नहीं आया। उसे अब बहुत गुस्सा आया। उसने अब अपनी बाइक को निर्धारित गंतव्य पर लगाया और उसे एक बार फिर कॉल कर के उसका जायजा लेना चाहा।

वह जेब से मोबाइल निकाला तो देखकर दंग रह जाता है कि उसका मोबाइल स्विच ऑफ था। उसने जल्दी से उसे ऑन करते ही राजीव को कॉल लगाया तो पहली ही रिंग में उसने उठा लिया मानो जैसे वह काफी देर से उसी के ही कॉल की प्रतीक्षा में हो। कॉल को उठाते ही जयन्त के कुछ बोलने से पहले ही वह दूसरी तरफ से बड़बड़या, "हरामखोर कहाँ है? मैं पिछले आधे घंटे से तेरा नम्बर लगा लगा कर थक गया हूं और जनाब है कि मोबाइल ऑफ किये बैठे हैं? मैं कब से तैयार बैठा तेरी राह देख रहा हूँ। बोल कहाँ है, चलना है या नहीं?"

जयन्त ने सोचा था कि वह इसकी अच्छे से खबर लेगा औऱ इसे इतना लताडेगा लेकिन यहां दांव उल्टा पड़ चुका था। उसने सवालों का अंबार लगा दिया था। जयन्त अपने प्रश्न करने की जगह उसे वहीं सामने सब सच बताने और और उसकी ब्यथा सुनने का मन मे निर्णय लिया और उसे बीस मिनट का वक़्त मांगा और उसे लेने के लिए अब फिर से मैं अपने गांव अरंद रवाना हो चला।

 

                                    अध्याय (2):- चुड़ैल से साक्षात्कार

रात के लगभग 9:30 का वक़्त हो चला था। बाइक चलाते हुए पूरा इलाका सुनसान से प्रतीत हो रहा था। इस वक़्त गांव में अक्सर सभी नींद के आगोश में समाए होते हैं। जनवरी का महीना था। ठंड का मौसम होने की वजह से सड़कों पर और चारों ओर नीरव शांति फैली हुई थी शांति ऐसी की किसी पक्षी के बोलने की भी आवाज नहीं आ रही थी। मानो की जैसे पक्षी भी ठंड की वजह से रजाई ओढ़कर सो गये हो।

जयन्त अपनी बाईक को लगभग काफी तेज गति से चला रहा था क्योकि वो जल्द से जल्द अपने गांव अरंद पहुंचकर राजीव के साथ वापिस बारात में सम्मलित होना चाहता था। सड़क बिल्कुल सूनसान थी रास्ते में बहुत ही कम घर थे न की मात्रा में ही एवं रास्ते में सिर्फ हल्की ठंडी-ठंडी हवा का अनुभव हो रहा था।

अचानक जयन्त को रास्ते पर एक आकृति सी दिखी जो तेज दौड़कर रास्ते को पार कर लेना चाह रही थी। उस आकृति को देखकर यह लग रहा था कि मानो जैसे वह कोई औरत हो। जयन्त ने झटके से अपनी बाइक के हैंडल को घुमाकर बाइक की हेडलाइट को उस आकृति की तरफ घुमाया तो देख कर दंग रह जाता है कि वह आकृति पलक झपकते ही सड़क के पार कर जाती है।

जयन्त को यह देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई पलक झपकते ही इतनी चौड़ी सड़क को कैसे पार कर सकता था। जयन्त इन्हीं विचारों में उलझा पड़ा था कि तभी उसकी बाईक की हेड लाइट बंद पड़ जाती हैं।

जयन्त हेड लाइट को ठीक करने के लिए रुक जाता है। काफी देर तक मशक्कत करनी पर भी वो लाइट ठीक नहीं होती है। वह वहां पर कुछ वक्त खड़ा रहता है फिर अचानक उसे एक साया अपनी तरफ बढ़ती हुई नजर आती है। यह वही साया थी जिसे उसने थोड़ी देर पहले सड़क को पलक झपकते ही पार करते देखा था।

वह जैसे जैसे आगे बढ़ रही थी एक विशेष किस्म की तीव्र खुश्बू भी बढ़ती जा रही थीं अगले चन्द सेकण्ड्स में अब वह उसके सामने थी। उसकी मौजूदगी का एहसास वह मनमोहक मादकता भरी सुगंध करवा रही थी। इस से पहले इतनी अच्छी खुश्बू उसने अपनी ज़िंदगी मे कभी नहीं सूंघी थी। इस खुश्बू को जैसे जैसे वह सूंघता जा रहा था खुद पर से नियंत्रण खोता चला जा रहा था। मानो जैसे यह खुश्बू उस पर कोई जादू कर रही हो।

अगले पल जयन्त की नजर उस काले साये पर पड़ी तो वह यह देखकर प्रफुल्लित हो जाता है कि एक साढ़े पांच फीट की कोई औरत काली साड़ी में उसके सामने खड़ी है। उसने अपना मुख घूँघट के अंदर छिपा रखा था। उसके पेट का काफी बड़ा हिस्सा ढके न होने की वजह से उसकी नाभि का उभार जयन्त साफ साफ देख पा रहा था। जयन्त नजरे उसकी नाभि पर ही अटक गई थी, जैसे रावण की शक्तियां उसकी नाभि में ही निहित थी ठीक उसी प्रकार जयन्त उसके नाभि के वजूद का एहसास हो रहा था।

बहरहाल उसने खामोसी को तोड़ते हुए जयन्त से ही प्रश्न किया- "यहां इतनी रात को क्या कर रही हो?"

उसकी यह बात सुनते ही जयन्त बोल पड़ा- "त...त...तुम्हे इस से क्या मतलब?

यह सुनते उस औरत ने बड़े प्यार से इस बार कहा- "इतनी रात को तुम्हे इस जगह डर नहीं लगता?"

यह सुनते ही इस बार जयन्त सकपका गया और थोड़ा ऊंचे स्वर में बोला- "मेरी छोड़ो पहले यह बताओ कि तुम यहां आधी रात को अकेले इस सुनसान जगह पर क्या कर रही हो?"

यह सुनते ही उसने चालाकी भरी जवाब दिया और बोली- "मैं अकेली कहाँ हूँ अब तुम भी तो साथ हो?"
यह कहकर वो खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसके इस हंसी के साथ जयन्त भी कुछ सामान्य स्थिति में हो गया। जब उसकी हंसी रुकी तो वो बोली- "मैं तो अक्सर यहां आती रहती हूं लेकिन तुम्हे पहली बार देखा है।"

जयन्त ने भी उसकी इस हमदर्दी को देखते हुए अपनी सारी कहानी बता दी जिसके सुनने के बाद हो हंस के बोल पड़ी- "बाबू! होनी को कोई नहीं टाल सकता। जो होना है वो तो हो कर रहेगा ही। इसे ना तुम बदल सकते ही और ना ही...!"
यह कहते ही वो एकदम से चुप हो गई।

जयन्त ने भी उसे कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर खामोशी छाई रहती है। तभी जयन्त के दिमाग मे एक सवाल घर कर जाता है और वो मन ही मन बुदबुदाता है- "कहीं ये चुड़ैल तो नहीं? भला इतनी रात को कौन अकेली औरत खेत मे भटकती है। नहीं नहीं यह चुड़ैल नहीं हो सकती। यदि ऐसा होता तो इस से इतनी मनमोहक खुश्बू कैसे आती। मैंने तो सुना है कि चुड़ैल के जिस्म से सडीली दुर्गंध आती है और वह इतनी व्याहारिक भी नहीं होतीं। ल...ल...,लेकिन यदि यह सच मे चुड़ैल ही हुई तो? अभी पता लग जायेगा यदि इसकी दोनों टांगे उल्टी हुई यो निश्चित रूप से यह चुड़ैल ही होगी।"

अब जयन्त ध्यान से उस औरत के पाँव के तरफ देखे तो अपने किस्मत को कोसने लगा क्योंकि एक तो यह घनघोर अंधेरा और ऊपर से काले रंग की साड़ी जिसकी वजह से उसके पांव बिल्कुल ही ढका हुआ था जिसकी वजह से वो बिल्कुल अंदाजा नहीं लगा पाया।

जयन्त  को उसके चुड़ैल होने के अभी तक कोई पुख्ता सबूत नहीं मिले थे लेकिन वह एक आम महिला है यह उसका दिल मानने को भी कतई राजी नहीं था। बहरहाल उसने भी उसे एक साधारण महिला ही मान लिया।

जयन्त ने चुप्पी तोड़ते हुए उस से कहा- "हां बिल्कुल सही कहा तुमने लेकिन इतनी रात गए इधर क्या कर रही हो? पता है न यह इलाका बाहुबलियों का है और ऐसे जगह पर इतनी रात को किसी ख़तरे को निमंत्रण देने जैसा ही है।"

"अगर मेरी मदद ही करना चाहते हो तो यहां से तकरीबन 3 किलोमीटर पर मेरा गांव है वहां मुझे छोड़ दो।"

"बेशक मैं छोड़ दूंगा मुझे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन क्या नाम है आपके गांव का?"

"जी आगे जो वरुणा नदी पड़ती है उसे पर करने के बाद लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर भरहेता नामक गाँव के पास छोड़ देना।"

"ठीक है यह तो मेरे गाँव जाने के रास्ते मे ही पड़ता है। आ जाओ बाइक के पीछे आराम से बैठ जाओ।"

यह कहते जयन्त ने अपनी मोटरसाइकिल के पीछे उसे बैठा लेता है। वह औरत जयन्त से लगभग चिपक कर बैठ जाती है। उसके इस कदर बैठने से जयन्त के शरीर मे झुरझुरी सी दौड़ पड़ती है। उसकी जिंदगी में ऐसा मौका पहली बार मिला था कि कोई इतनी जवान और हसीन औरत उसके इतनी करीब आई हो।

"तो क्या नाम बताया था आपने?"

"जी मेरा नाम जयन्त कुमार श्रीवस्ताव है और आपका?"

"मेरा नाम जानकर क्या करोगे बाबू?"

"अच्छा चलो कोई बात नहीं अगर नहीं बताना चाहती तो मैं तुम्हे फ़ोर्स नहीं करूंगा।"

"नहीं बाबू वह बात नहीं है। हम जैसे गरीब को पूछता ही कौन है?"

"यह कैसी बाते कर रही हो। मैं भी तो एक गरीब किसान का ही बेटा हूँ, लेकिन किसी के सामने हाथ फैलाने की जगह दोनों हाथ से मेहनत करते हैं और खाते हैं।"

"नहीं बाबू मेरा वह मतलब नहीं था, खैर छोड़िए इन बातों को यह बताइये कि आपकी शादी हो गयी है क्या?"

"नही अभी तो नहीं हुई लेकिन उम्मीद है जल्द आप जैसी कोई खूबसूरत लड़की मिल गयी तो ज़रूर कर लूंगा।"

"आपने मेरे चहेरा देख लिया क्या?", यह कहते के साथ वह औरत जयन्त के जिस्म से काफी चिपक जाती है।

"नहीं देखी तो नहीं है लेकिन मैं जानता हूँ आप बेहद सुंदर ही होंगी बिल्कुल अपनी खूबसूरत आवाज की तरह।"

"तो आपको नहीं लगता कि इस खूबसूरत चेहरे का दीदार कर ही लेना चाहिए आपको।"

"यह तो मेरी मन की बात कह दी आपने। मैं तो कब से आपके चेहरे को देखने को बेताब था, लेकिन कहने से डर रहा था कि पता नहीं आप क्या समझो।"

"तो जनाब पीछे पलटो ना?"

इस बार उसने बड़ी ही मादकता भरी आवाज में कहा था। जयन्त का इस वक़्त पूरा ध्यान बाइक चलाने पर था वह चाह कर भी उसका चेहरा नहीं देख पा रहा था क्योंकि उसने मोटरसाइकिल के साइड मिरर पिछले हफ्ते ही हटा दिए थे और रास्ते टूटी फूटी होने की वजह से उसका ध्यान सड़क पर सामने था।

अगले ही पल वह औरत जयन्त के कमर पर हाथ आगे की तरफ बढ़ाते हुए उसे प्यार से जकड़ लेती है और बोलती है- "अब तो पीछे पलट कर देख लो मेरी जान!"

अचानक इस बदलाव से जयन्त का बदन थरथरा उठा। उसने सोचा कि अब इसे अचानक क्या हो गया है? यह क्यों बार-बार मुझे अपने चेहरे को दिखाने के पीछे पड़ गई है।

अभी जयन्त इन्ही सब सोचने में खोया था कि वरुणा नदी का पूल आ गया और वह औरत जयन्त के गले पर पीछे से चुम्बन करती हुई उसके कानों को अपने हल्के से दांतों से प्यार से काटते हुए बोलती है- "अब तो मेरी आखिरी मंजिल भी आ गयी है बाबू पलट जाओ न। एक दफा देख तो लो। क्या पता तुम्हारी तलाश मुझे देखने के बाद खत्म हो जाए हमेशा के लिए।"

इधर जयन्त के दिमाग मे कुछ और ही चल रहा था। उसके यह बात समझ मे आ गई थी कि वह औरत ज़रूर कुछ गलत करना चाहती है जिसकी वजह से वह उसकी जगह रास्ते पर अपना ध्यान केंद्रित करता हुआ चल रहा था। जब उस से नहीं रहा गया तो वो बोल पड़ा- "अरे! इस कद्र परेशान मत करो। देखो वरुणा नदी को पार करते ही जैसे ही मैं तुम्हारे गांव छोडूंगा तो उतरने के बाद मुझे अपना चेहरा दिखा देना क्योंकि मोटरसाइकिल चलाते हुए तुम्हारे चेहरे को देखना मेरे लिए असम्भव है और दुर्घटना होने के संभावनाएं ज्यादा है।"

जयन्त की यह बात सुनते ही वह इस बार चीख कर बोली- "ऐ लड़के! मैं कहती हूँ कि पीछे पलट नहीं तो सही नहीं होगा।"

यह सुनते जयन्त सकपका कर रहा जाता है कि जो अभी औरत प्यार की अठखेलियाँ कर रही थी अचानक ऐसा क्या बदलाव आ गया जो अपनी ज़िद्द पूरी करने के लिए लगभग पागल सी होती जा रही है। अभी जयन्त यह सोच ही रह था कि फिर उस औरत की बहुत तेज चीखने की आवाज आई- "तू देख नहीं तो मैं तेरी इस गाड़ी से कूद कर तुझे भी गिरा दूंगी। तू समझता क्यों नहीं। बस एक बार पलट के देख ले मुझे। तुझे पलटना ही होगा समझे।"

अचानक हुए इस बर्ताव से जयन्त सकते में आ गया था। अचानक उसे अपने दादा की कही हुई बात याद आ गई।

"उसके दादा ने बताया था कि एक बार ठिठुरन भरी ठंड में किसी गाँव से अपने गांव आ रहे थे। घर जल्दी पहुंचने के चक्कर से उन्होंने खेत के रास्ते से शॉर्टकट जाने की सोची। उस वक़्त उनके हाथ मे घड़ी तो नहीं थी लेकिन यह घटना मध्यरात्रि से पहले की है।

चलते चलते उन्हें अचानक ऐसा एहसास हुआ था कि उनके पीछे-पीछे कोई चला आ रहा है। फिर अगले ही पल उन्हें एहसास हो गया कि कोई उनके पीछे पीछे चलते इतने करीब आ गई कि अचानक उनसे कहा- "कहाँ जा रहे हो मुसाफिर?"

यह सुनने के बाद भी जयन्त के दादा ने कोई जवाब नहीं दिया। फिर अगली आवाज आई-
"
मुसाफिर नाराज हो क्या?"

यह सुनने के बाद भी जब जयन्त के दादा ने कुछ न कहा तो उस अजनबी आवाज ने उसके दादा के बिल्कुल करीब आ कर उनके कंधे पर हाथ रखकर बोला- "अरे तनिक सुस्ताई लो बुढऊ? इतनी जल्दी कहाँ है जाने की?"

काफी देर से जयन्त के दादा शांत थे लेकिन उन्होंने देखा कि वह अजनबी साया उसका साथ छोड़ने को ही तैयार नहीं तो वह खीझकर बोले- "देखकर तेरी कोई भी युक्ति काम मे नहीं आने वाली। तू लाख यत्न कर ले मैं पीछे पलट कर नहीं देखने वाला। अगर तुझमे हिम्मत है तो सामने आ कर बात कर।"

उनके ऐसा कहते ही वह साया वहां से गायब हो गई और पूरे रास्ते उन्हें किसी ने फिर परेशान नहीं किया। वह इस बात को भलीभाँति जानते थे कि पीछे पलटकर देखने पर इस तरह की नकरात्मक शक्तियां उनके साथ घर आ जाती या वहां पलटते ही उनका अनिष्ट कर सकती थी।

यह बात उन्होंने अपने पोते को बताया था जिसे जयन्त अच्छी तरह  गांठ बांध लिया था कि कुछ भी हो जाए वीराने मे ऐसे मौके पर पीछे पलटकर भूल से भी नहीं देखनी चाहिए।

जयन्त अब यह भलीभाँति जान चुका था कि यदि उसने पीछे पलटकर नहीं देखा तो वह बुरी शक्तियां उसका बाल भी बांका नहीं कर सकती। जयन्त इन्ही विचारों में खोया था कि उसने देखा कि उस औरत का गांव आ गया है। उसने उस औरत को आवाज दी तो कोई जवाब नहीं आया। उसे एहसास हुआ कि ज़रूर कुछ दाल में काला है। जैसे ही वो पलटकर देखता है तो स्तब्ध रह जाता है। पीछे वह औरत मौजूद नहीं थी। उसने आजू बाजू अपने सिर को घुमा कर देखा लेकिन जहां जहां तक उसकी नजरें गईं वहां तक सिवाय सन्नाटे के कुछ भी हासिल न हुआ।

जयन्त अब पूरी तरह डर चुका था। वह अब समझ चुका था कि यह कोई दुष्ट साया थी जो उसके साथ अनिष्ट करने के इरादे से उसकी बाइक पर सवार हुई थी। लेकिन वह अपने मनसूबों को अंजाम देने में नाकामयाब रही क्योंकि जयन्त को सही वक्त पर अपने दादा जी का अनुभव याद आ गया था।

लेकिन जयन्त अभी भी उसी जगह खड़ा हो कर चारो तरफ बार बार ऐसे निहार रहा था जैसे मानो वह वह औरत कहीं से भी उड़ती हुई उसकी बाइक पर आ कर बैठेगी। वह अब लगभग पसीने से तर-बतर हो गया था। अब उसके हाथ भी काँपने लग गए थे।

उसने आव देखा न ताव मोटरसाइकिल को फेरारी की इंजन की तरह भगाता हुआ हनुमान चालीसा पढ़ने लगा।
"
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजगर।
राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुतनामा।।"

अब वह उस अजनबी हसीना के गांव से काफी आगे आ चुका था। उसके मन मे अभी भी ख्याल आया रहे थे कि- "आखिर वह औरत कौन थी? अचानक उसे ऐसा क्या जो गया जो मुझे पीछे पलटकर देखने को मजबूर कर रही थी? क्या वह सच मे चुड़ैल या कोई बुरा साया था जैसा कि  एक दफे दादा जी का भी सामना हुआ था? जिस तरह से वह मोटरसाइकिल को बिना रुके गायब हुई उस से तो यही लगता है कि वह हो न हो चुड़ैल ही थी।"

जयन्त के दिमाग मे बस यही सब उटपटांग विचार आए जा रहे थे। वह इस ठंड के मौसम में भी पसीने से तर-बतर हो चुका था।

"शुक्र है कि मुझे दादाजी की वह बात ध्यान में रही और मैं उस औरत....नहीं नहीं वो औरत नहीं चुड़ैल के कहने पर पीछे नहीं पलटा।"
यह कहते उसने हनुमान जी को इसका आभार व्यक्त किया और वह अब अपने गांव आ चुका था। वह जैसे ही अपने घर पहुँचा वहां उसकी नजर राजीव रंजन पर पड़ी जो उसका बेसब्री से इंतजार कर रहा था।

उसे देखते ही राजीव बोल पड़ा- "तू मुझे बिना लिए क्यों चला गया था?"

"वो...वो...मैं भूल गया था।"

"ऐसे कैसे भूल गया बे? जब दोनों की बात हुई थी साथ मे जाने की?"

राजीव की बात को अनसुना करते हुए मोटरसाइकिल की चाभी उसके हाथ मे थमाते हुए बोला- "ये ले चाभी और तू जा?"

राजीव उसके हाथ के स्पर्श मात्र से चौंक जाता है और बोलता है- "अरे तेरा बदन इतना ठंडा कैसे है? और तू इस ठंड में भीगा कैसे है? तबियत ठीक तो है न तेरी?"

इतना सुनने के बाद जयन्त बिना कुछ जवाब दिए अपने कमरे के दरवाजे को बंद कर के अंदर चला जाता है।

                                                          अध्याय (3):- चुड़ैल का खौफ                                                              राजीव के कुछ समझ नहीं आया की जयन्त ने इस तरह से अजीब हरकतें क्यों की होगी? राजीव वहीं खड़े खड़े खुद से बड़बड़ाता है- "ये जयन्त को क्या हुआ? ये फिर अपने नाम के अनुरूप किसी यंत्र की तरह बिना किसी कारण के बिगड़ जाता है? उसका शरीर ठंडा और पसीने से तार बतर था, मुझे तो लगता है ज़रूर इस बार भी यह वहां शादी में किसी से लड़ झगड़ कर आया होगा? खैर कोई बात नहीं कल उस से उसके हालात जान लूंगा। मुझे अब जल्द वहां शादी में जाना होगा नहीं तो मुझे खाली पेट ही सोना पड़ेगा।"

यह कहते के साथ उसने मोटरसाइकिल में चाभी घुमा कर स्टार्ट करते हुए अपने दोस्त के बारात की और रुख करता है। लगभग 15 मिनट में ही वह वरुणा नदी के समीप आ जाता है। उस पूल के खत्म होने के बाद वहां से तीन रास्ते तीनो दिशाओं की तरफ जा रही थी। वह इस रास्ते की तरफ बहुत कम आया था जिसकी वजह से उसके समझ मे नहीं आ रहा था कि अब उसे कौन सा रास्ता पकड़ना चाहिए। वह वहीं उस तीनमुहाने पर खड़ा हो कर माइलस्टोन (मील का पत्थर) पढ़ने लगा कि तभी उसे किसी की छाया दिखती है जो कि एक झटके से ही सड़क को क्रॉस कर जाती है।

उस साया के गुजरते ही उसकी बाइक की हेडलाइट अपने आप ऑफ हो जाती है। यह देखकर वह और भी घबरा जाता है। वह डर कर अपनी मोटरसाइकिल को साइड स्टैंड पर खड़ा कर के मील के पत्थर के पीछे दुबक जाता है।

वह देखता है कि उस साये के हाथ मे लालटेन जल रही है और वह उसी की तरफ आ रही है। वह आदत के अनुसार फिर खुद से बड़बड़ाता है- "ओह्ह यह कैसे संभव हो सकता है। कोई व्यक्ति पल भर में सड़क कैसे पर कर सकता है, वो भी हाथ मे लालटेन लिए।"

अभी उसने यह कहा ही था कि वह साया ठीक उसके सामने थी। काले रंग की साड़ी से वह औरत सिर से पाँव तक ढकी हुई थी। उसका घूंघट इतना लंबा था कि उसकी छाती तक आ रहा था जिसकी वजह से चेहरा देखना असंभव ही था। उसके समीप आते ही राजीव को ठंड अब ज्यादा महसूस होने लगी थी।

यह वही साया थी जिसका थोड़ी देर पहले जयन्त सामना कर चुका था। एक रात में इस चुड़ैल को अपना दूसरा शिकार मिला था। इस से पहले की वह साया राजीव की हरकतें समझ पाती उसने ऐसे नाटक किया जैसे वह उस मील के पत्थर के पीछे लघुशंका कर रहा हो। राजीव अपने आप को सामान्य करता हुआ मील के पत्थर से ऐसे बाहर निकला जैसे उसने कुछ देखा ही न हो।

राजीव ने उस से बात करनी चाही लेकिन इस से पहले कि राजीव कुछ कहता वह बोली- "बाबू अकेले कहाँ जा रहे?"

"मैं यहां से आधे घंटे की दूरी पर एक गांव है जिसका नाम मुंदीपूर है वहां जा रहा हूँ। वहां मेरे एक दोस्त की शादी है। लेकिन तुम इतनी रात यहां क्या कर रही हो?"

"मैं पानी की धारा को खेत की तरफ मोड़ने आई थी। अब वह काम कर के वापिस जा रही हूं।"

"क्यो तुम्हारे घर मे कोई मर्द नहीं है क्या?"

"कोई होता तो फिर मैं यहां क्यों भटकती इतनी रात को। बाबू तुम्हें डर नहीं लगता इतनी रात को सुनसान जगह से होते हुए अकेले ही जा रहे हो?"

"अरे मेरी छोड़ो! यह सवाल तो मैं तुमसे भी पूछ सकता हूँ।"

"बाबू! मुझे किसी का भी डर नहीं। ना मेरे आगे कोई है ना मेरे कोई पीछे। अब मेरा कोई चाहकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता।"

"तुम्हारी बातें मेरी समझ से परे हैं। ये बताओ तुम्हे किधर जाना है, मैं छोड़ता हुआ चला जाऊंगा?"

"आप जिस गांव जा रहे हो वहां से 5 किलोमीटर पहले एक गांव पड़ता है वहां जाना है मुझे।"

यह सुनते राजीव उससे बोलता है कि -"ऐसा करो कि तुम मेरे साथ चलो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा और मेरी मदद भी हो जाएगी।''

वह औरत रूपी चुड़ैल  बिना किसी हिचकिचाहट के और बिना कुछ बोले बाइक पर सवार हो जाती है यह थोड़ा राजीव को अजीब सा लगता है पर वह कुछ नहीं बोलता और बाइक को स्टार्ट करने के बाद कहता है-

"यहाँ से तो तीन रास्ते जा रहे हैं। हमे किस रास्ते मे जाना है?"

"वो जो सबसे किनारे वाला रास्ता दिख रहा है न जहां शुरूआत में पीपल का पेड़ हैं वहीं से ले लो।"

"लेकिन मैं जब पिछले साल आया था तब इस बीच वाली रास्ते से उस तरफ गया था।"

"वो...वो...सही कहा आपने पहले वही रास्ता था लेकिन अब उस रास्ते पर गड्ढे बहुत ज्यादा हैं जिसकी वजह से दोनों को परेशानी होगी।"

"ठीक है जैसा आप कहो। वैसे भी आपको ज्यादा पता होगा।"

राजीव ने बाइक उस पीपल के पेड़ के रास्ते की तरफ घुमा दिया और चल पड़ा। अभी कुछ दूर तक ही चला था कि उनकी बाइक की हेडलाइट जो थोड़ी देर पहले अपने आप बुझ गई थी लाइट अपने आप ही जलने लगी अब उसे और भी ज्यादा अजीब लगा। फिर उसने उस चुड़ैल से बात करनी चाही लेकिन जैसे जैसे वह उस रास्ते पर बढ़े जा रहा था वह कुछ अजीब से ही ज़बाब दे रही थी।

लेकिन राजीव ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा- "आपको अंजान व्यक्तियों पर भरोसा नहीं करना चाहिए?"

वह चुड़ैल बोली- " मैं यहां वर्षों से आती जाती रहीं हूँ। मुझे जो इंसान एक बार देख लेता है वो मरने के बाद भी नहीं भूलता।"

"नहीं...नहीं मुझे इतनी जल्दी नही मरना मुझे। ओहहो तो इतनी खूबसूरत हो आप?", यह कहते के साथ नासमझ राजीव हंस पड़ता है। जब राजीव शांत होता है तो वह चुडैल कहती है- "तो चेहरा नहीं देखना चाहोगे मेरा?"

"क्या फायदा आपने घूँघट की जगह यह चादर जो ओढ़ रखी है, कोई कैसे देख पायेगा?"
"
तुम बोलो तो हटा दूँ यह घूँघट?"

"नहीं रहने दो। किसी ने बेकार में देख लिया तो बात का बतंगड़ बना के रख देगा।"

यह सुनते इस बार वह गुर्रा के बोली- "तुम लोग समझते क्या हो अपने आप को। मैं देखती हूँ कि तू कैसे नहीं देखेगा?"

अजीब सी आवाज में राजीव ऐसे ज़बाब सुनकर स्तंभ सा रह जाता है। वह सोचता है कि न जाने किस को आज साथ ले लिया है और वह बिल्कुल शांत हो कर बाइक चलाने लगता है और अपने आप में सोचता है- "हे भगवान यह औरत है या कोई बला है? कब और कितनी जल्दी मैं इसके गाँव छोड़ दूं ताकि इससे पीछा छूटे?"

लेकिन अब उसे क्या पता की वो कैसी बला को अपने साथ ले कर अंजान मंजिल पर निकल पड़ा है, जहां से एक बार जाता तो इंसान ही है लेकिन वापिस जब आता है तो उसके साथ अपना शरीर नहीं होता।

"ओह्ह जल्दी से बाइक रोको मेरा दुपट्टा नीचे गिर गया है?" ,यह कहते हुए वह चुड़ैल राजीव के कमर को जोर से भींच लेती है।

"अरे यार अब ये क्या बला है? अच्छा पहले मेरी कमर को छोड़ो मैं रोक कर देता हूँ तुम्हारा दुपट्टा।"

राजीव अगले ही पल अपनी बाइक सड़क के बीचो बीच रोक देता है और तभी उसे ख्याल आता है कि वह औरत झूठ बोल रही है। वह उसे डांटते हुए पीछे पलट कर बोलता है-

"अरे बेवकूफ! तूने मुझे गधा समझा है क्या? मैं अच्छी तरह से जनता हूँ तेरे पास कोई दुपट्टा उपट्टा नहीं है क्योकि तूने काले रंग की साड़ी पहनी हुई है।"

लेकिन उसे कोई आवाज नहीं सुनाई देता तो वह बाइक में बैठे - बैठे ही पीछे की तरफ देखता है , तो वहां पर कोई नहीं था।
राजीव बहुत घबरा जाता है और तुरंत बाइक को साइड स्टैंड में लगाकर अपने चारों ओर देखता है , पर कोई नहीं दिखाई देता।

"अरे ये औरत कहाँ गई? अभी तो कह रही थी कि उसका दुपट्टा गिर गया है। भला चंद सेकण्ड्स में कहां गायब हो सकती है?
क... क... कहीं वो चु...चु...चुड़ैल तो नहीं? हे भगवान मुझे पहले ही समझ जाना चाहिए था।"

उसने अपने मुंह से चुडैल शब्द निकाले ही थे कि उसने देखा कि सड़क के किनारे पीपल का पेड़ था, वहां उसे कोई आकृति दिखाई दी।

"ओह्ह मैं तो खामखां ही डर गया था। शायद उस औरत को शौच लगी हो इस वजह से उधर जा रही हो। बेचारी शर्म के मारे मुझसे कुछ कह न पाई हो और दुपट्टे के गिरने का बहाना बनाया ताकि मैं बाइक रोक सकूँ।"

यह कहने के साथ उसने अपनी खोपड़ी को हल्के से अपने हथेली से मेरी और उसके वापिस आने का इंतजार करने लग गया।
जब काफी देर तक वह महिला लौट के नहीं आई तो वो बोला- "ओह्ह काफी देर हो गयी है, कहीं वो महिला किसी परेशानी में तो नहीं है। मुझे चल कर देखना ही होगा।"

                                                अध्याय (4):- दीदार-ए-चुड़ैल

राजीव उस पीपल के पेड़ की तरफ चल पड़ा। अगले ही पल वह पीपल के पेड़ के करीब था। उसने पीपल के पेड़ के चारो तरफ सूक्ष्म निरीक्षण किया लेकिन उसे वह महिला कहीं नहीं मिली। वह थककर पीपल के पेड़ के नीचे  खड़ा हो गया कि तभी अचानक उसके चेहरे पर कुछ तरल पदार्थ सा गिरा। उसने उसे छु कर सूंघने की कोशिश की तो बहुत तेज बदबू सी आई। उसने मोबाइल का फ़्लैश लाइट ऑन करने के बाद देखा तो उसके होश फाख्ता हो गए और वह चीख पड़ा-

"ख... ख... खून यह तो खून है। लेकिन यह कहाँ से...?"

यह कहते ही उसने अपनी खोपड़ी ऊपर की तो देखकर अवाक रह जाता है कि ऊपर काली साड़ी में कोई औरत गले मे फांसी का फंदा लगा कर लटकी हुई थी। उसकी जीभ उसके ठुड्डी से निचे तक लटक रही थी, जिससे खून का रिसाव चालू था और वही खून की बूंदे उसके चेहरे पर पड़ी थी। उसने फिर ध्यान से देखा तो उस औरत के पांव बिल्कुल विपरीत दिशा में मुड़े हुए थे। वह औरत ऊंचाई पर लटकी हुई थी जिसकी वजह से उसकी टांगो को वह आसानी से देख पा रहा था।

वह घबराकर वहां से भागने को होता है कि तभी उसको ठोकर लगती है और औंधे मुंह गिर पड़ता है। लेकिन जैसे ही वह पलटता है उसकी नजर फिर उस फांसी पर लटकी हुई उस औरत पर पड़ती है जिसे देखकर वह फिर से चीख उठता है- "अरे यह तो वही काली साड़ी वाली औरत है जिसने मुझसे लिफ्ट मांगी थी और मुझे यहां तक ले आई थी। इसका मतलब यह कोई अबला नहीं चुड़ैल है।"

उसने इतना कहा ही था कि तभी पेड़ पर लटकी चुड़ैल की आंखे खुल जाती है औऱ वह जोर जोर से हंसने लगे जाती है। उसके ठहाके से पूरा वीराना दहल उठता है। वो जैसे ही उठ कर भागने को होता है की तभी वह चुड़ैल का जिस्म उसके ऊपर गिर पड़ता है।

अपने लंबी लंबी नाखूनों से राजीव के चेहरे को किसी जंगली बिल्ली की तरह नोंच डालती है। अब राजीव की चीख से वह वीराना दहल उठता है। किसी तरह वह पूरी ताकत से उस चुड़ैल को धक्का देता है और वह भागने की कोशिश करता है लेकिन....
यह क्या?

वह लाख कोशिश करने के बावजूद भी अपने शरीर को अपने जगह से हिला नहीं पता। उज़के बदन पर खुद उसका ही नियंत्रण नहीं रह गया था। मानो जैसे किसी ने उसके जिस्म पर अपना कब्जा कर लिया हो। वह कठपुतली की भांति वहां लेटे लेटे अपनी मौत का मंजर देख रहा था। वह चाहता था कि ज़ोर से चीखें और वहां से भाग खड़ा हो जाए लेकिन वह अपनी बेबसी के आगे विवश था। सिवाय सोचने के और कोई भी चारा नहीं बचा था।

अगले ही पल वह चुड़ैल उसकी छाती पर बैठ जाती है और चीख कर कहती है- "मूर्ख तू नहीं तेरी मौत यहां खींचकर लाई है। तेरा दोस्त अपनी चालाकी से बच तो गया लेकिन उसने तुझे मरने के लिए मेरे पास भेज दिया है। अब आखिरी बार अपने इष्ट देव को याद कर ले क्योकि मैं अब तेरे खून से अपने प्यास बुझाऊंगी। तेरे लाल लाल गढ़े रक्त से ही मुझे तृप्ति मिलेगी।"

यह कहते ही वह चुड़ैल राजीव के जिस्म से वक झटके में उसके धड़ से कपड़े फाड़ देती है। राजीव अपनी मौत को इतना समीप देखकर चीख पड़ता है।

"अरे दुष्ट चुड़ैल मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है। भगवान के लिए मुझे छोड़ दे। मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है।"
यह आवाज उसके हलक में काफी देर से अटकी पड़ी थी। चुड़ैल ने उसे यह आखिरी मौका दिया था कि उसके आखिरी शब्द गले मे ही न अटके रह जाएं।

वह बार बार खुद को कोश रहा था कि वहां से किसी तरह मुक्त हो जाए। लेकिन उसका हर प्रयास विफल हो रहा था। साथ साथ उसके दिमाग में यह भी चल रहा था- "ओह्ह तो जयन्त ने इस चुड़ैल का सामना किया था, जिसकी वजह से वह पसीने से तर बतर था। उसने पूछने पर भी इसलिए नहीं बताया क्योंकि उसकी बातों पर कोई भी विश्वास नहीं करता।"

उसे अपने इस गलती पर पछतावा हो रहा था। उसके आंखों से अनायास ही आँसू निकल रहे थे जो बहते बहते उसके मुंह में जा रहे थे। आज इस नमकीन आँसू के पीछे का दर्द उसे अपनी मौत से चुकानी पड़ रही थी। अगले ही पल उस चुड़ैल ने अपने नुकीले नाखून उसकी छाती में घूंसा दिया और उसकी छाती चीर डालती है। राजीव असहनीय पीड़ा से तड़प उठता है और उसकी आंखें बाहर निकल जाती हैं।

लेकिन वह दुष्ट चुड़ैल इतने पर भी नहीं रुकी। उसने राजीव के कलेजे को बाहर निकाला और चप...चप...चप कर के खाने लगी। राजीव अपनी एड़ियां ज़मीन में रगड़ते हुए इस दुनिया को छोड़ कर जा चुका था।

इधर जयन्त बहुत ज्यादा डरा हुआ था।  वह बार बार राजीव के लिए चिंतित हो रहा था। वह जानता था कि राजीव को इन सभी बातों में विश्वास नहीं करता था। अब उसे उसकी जान की बहुत फिक्र हो रही थी।

अब रह -रहकर उसके दिमाग में सिर्फ एक ही सवाल आ रहा था कि वह औरत अचानक कहां गायब हो गई? क्या वह सच में चुड़ैल थी? क्योकि ऐसा करना किसी आम इंसान के बस में नहीं था।

यही सब सोचते सोचते वह रात के किसी वक़्त नींद के आगोश में समा गया। उसे वह चुड़ैल सपने में दिखाई दी जिसमें वह उसके दोस्त राजीव की ओर चली आ रही थी, लेकिन करीब आते ही उसके रूप में भयावह परिवर्तन होता है। जिसके बाद वह खून पीने वाली एक भयानक दरिंदा बन जाती है।

जिसके हाथों के नाखून खंजर के जैसे तेज और दांतो की पंक्ति में से आगे के दो दांत चंगादड़ के जैसे तेज और बड़े थे जो खून में डूबे हुए थे, और आंखों का रंग गहरा लाल बिल्कुल खून की तरह और निर्दयिता से भरी हुई थी।

यह सब देखकर मानो जैसे कि राजीव की सांसें थम चुकी थी। और वह चुड़ैल धीरे-धीरे राजीव के नजदीक आ रही थी लेकिन राजीव एक लाचार पेड़ के कटे तने के जैसे ही असहाय महसूस कर रहा था और अपने आप को हिला भी नहीं पा रहा था। वह चुड़ैल राजीव के नजदीक आ जाता है और वह उसके हाथ को जोर से पकड़कर अपने तेज धार वाले दांतों को गड़ा देती है और खून पीने लगती है।

राजीव अपने आप को छुड़ाने की बहुत कोशिश करता हैं और बहुत चिल्लाने की भी, पर पूर्ण रूप से असफल रहता है और उसकी सांसे धीरे धीरे उखड़ जाती हैं।

यह भयावह दृश्य के देखने के बाद जयन्त की नींद खुल जाती हैं औऱ जोर से चीखता है- "ब...बचाओ  कोई राजीव को उस चुड़ैल के हाथों बचाओsss!"

वह अपने चारों ओर देखता है और फिर उसने अपने हाथ को देखा पर उसे हर एक चीज साधारण नजर आई तो फिर कहीं उसकी सांस में सांस आई, वह सोचता है कि यह सब उसका भ्रम था और वह पुनः सो जाता है लेकिन जब वह सुबह उठता है तो उसे कुछ कमजोरी सी महसूस होती हैं लेकिन वह कुछ ज्यादा सोचे बिना जल्दी से राजीव को कॉल लगाता है लेकिन उसका मोबाइल स्विच ऑफ होने की वजह से बात नहीं हो पाती है।

वह फ्रेश हो कर जैसे ही बरामदे में जाता है तो उसकी नजर वहां मेज पर पड़े अखबार पर पड़ती है जहां अखबार का पृष्ठ संख्या 3 खुला हुआ था और खबर छपी थी- "भटकती चुड़ैल का एक और शिकार।" इस खबर को वह विस्तृत में पढ़ता है। '22 वर्षीय नवयुवक वरणी नदी के पास संदिग्घ स्थिति में मौत। युवक पास के ही अरंद ग्राम का निवासी माना जा रहा है। लाश पास के ही खेत मे एक पीपल के पेड़ से लटकी हुई पाई गई। लाश की स्थिति इतनी बद्तर थी कि उसके कुछ अंग शरीर से मौके वारदात पर नदारद थी।

इसकी मौत की वजह कुछ लोग जंगली पशुओं को दे रहे हैं तो कुछ लोग अंग तस्करी का हाथ बता रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ कुछ स्थानीय निवासी इसे उस चुड़ैल का प्रकोप बता रहे हैं जो अक्सर रात्रि को इस वीराने में लालटेन ले कर भटकती रहती है।

यह खबर पढ़ते के साथ जयन्त वहां से सीधे भागता हुआ अपने कमरे में आ जाता है और अंदर से कुंडी लगाकर उसने अपने आपको घर के अंदर ही कैद कर लिया। वह अपने दिल की धड़कनो की गूंज पूरे कमरे में सुन रहा था। कह घबराहट में अपने सिर के बालों को खींच रहा था।

3-4 दिन बीत गए लेकिन अभी तक उसके दिमाग में सिर्फ एक ही सवाल आ रहा था कि.... वह उस दिन बारात में क्यो गया?
चलती हुई  बाइक से वह चुडैल कैसे गायब हुई? वह चाहता तो राजीव की जान बचा सकता था। मगर....!

लेकिन यह सपना एक रात का नहीं था बल्कि यह कहानी अब हर रोज और हर रात की बन चुकी थी हर रात को यहीं सब होता और सुबह उठता तो फिर उसे कमजोरी सी महसूस होती। ऐसे होते - होते 6 दिन और बीत गए।

जनवरी के आखिरी हफ़्ते में जयन्त की माँ उस से मिलने को आती है। उसकी मां मिर्जापुर में  सरकारी विद्यालय में सहायक अध्यापिका के पर एक शिक्षिका थीं। वह अक्सर महीने के अंत मे एक बार अपने गांव अरंद अवश्य आती थीं। जैसे ही मां की नजर जयन्त पर पड़ती है तो वह देखकर चौंक जाती है , क्यो कि जयन्त का शरीर बहुत ही कमजोर और सूख सा गया था।

वह जयन्त से आश्चर्यजनक रूप से बोलतीं है, " क्यो बेटा तू इतना कमजोर और दुबला - पतला कैसे हो गया, क्या हो गया तुझे ? "
जयन्त -" पता नहीं मां , हो सकता है कि खेत मे ज्यादा काम की वजह से कमजोर हो गया हूं।"
मां- "बेटे खेतों के काम तो तू बचपन से ही करता आ रहा है लेकिन तू पहले ऐसा कमजोर कभी नहीं दिख मुझे। तुझे देखकर ऐसा लग रहा मानो जैसे तेरे शरीर मे खून ही न हो।"

जयन्त- "मां तुझे तो मैं हमेशा कमजोर ही लगता हूँ। तू जब जब आती है मुझे ऐसा ही कहती है।"

मां- "लेकिन इस बार की कमजोरी कुछ अलग नजर आ रही है...!"
यह कहकर मां शांत हो जाती है। वो अंदर ही अंदर अब चिंतित हो चली थी। उसे संदेह हो गया था कि जयन्त किसी गंभीर बीमारी की चपेट में आ चुका है।

जयन्त के पापा एक रात खेत मे गए थे और वो तब से आज तक लापता हैं। उस रात उन्हें खेत की तरफ सबने जाते देखा था लेकिन आते किसी ने नहीं देखा था। जितने लोग उतनी मुंह बाते। इतने वर्षों के  बाद लगभग सभी ने उनके वजूद को भुला ही दिया था लेकिन जयन्त की माँ की आंखों को आज भी उनके वापिस आने का इंतजार था।

जयन्त अपने ताऊ जी के परिवार के साथ ही यहां रहता था और घर की सारी ज़िम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाता चला आ रहा था। उसे अपने गांव की मिट्टी से बहुत प्रेम था और अपने पिता से बहुत लगाव जिसकी वजह से वह अपने पैतृक घर को छोड़ना नहीं चाहता था।


                                   अध्याय (5):- आखिरी सपना                                                                

रात को दोनों एक साथ खाना खा कर सो गए। उस रात को भी जयन्त को वही सपना दिखाई देता है तो फिर वह सुबह होते ही उस सपने के बारे में मां को बताता है । मां उसके सपने को नजरंदाज करे बिना, वो गांव के एक ओझा जिसका नाम लल्लन ओझा था उस से मुलाकात करती है और उसे यह सब बतलाती है और मदद करने के लिए मिन्नतें करती है ।

लल्लन ओझा -"तुम्हारे लड़के के ऊपर एक चुड़ैल का साया है जो हर रात आकर उसका खून पीती है जब तुम्हारा लड़का अर्ध चेतन अवस्था में होता है तो उसे यह सपने के जैसा लगता है। तुम उसके हाथ पर हल्दी का उबटन करना तो उस चुडैल के दांतों के द्वारा काटे और उसके पकड़ने से बने चिन्ह जो अदृश्य है वो दृश्य हो जाएंगे। "

मां - "आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। मैं कल उसे देखते ही समझ गई थी कि इसके शरीर में रक्त की कमी हो गई है। उसकी आँखों के नीचे काले रंग के गहरे और काले धब्बे बन गए हैं। लल्लन जी आपका बहुत बड़ा एहसान होगा मुझ अबला पर। आप मेरे बेटे को उससे बचा लीजिए कुछ उपाय बताए!"

लल्लन ओझा -"देखो मैं तुम्हारी मदद के लिए तैयार हूं लेकिन उसके लिए तुम्हें खुद को बहुत मजबूत करना होगा। मैं जैसा जैसा कहूंगा ठीक वैसा ही करना होगा अन्यथा उस चुड़ैल की शिकार तुम भी हो सकती हो।"

मां- "मुझे अपनी जान की परवाह नहीं है लल्लन जी। बस मेरा बेटा जयन्त पहले की तरह हो जाए।"

लल्लन ओझा- "देखो कल अमावस्या की रात है। कल की रात ही उसकी जिंदगी का फैसला होगा। कल की रात उसकी शक्तियां और भी प्रबल हो जाएंगी। वह चुड़ैल चाहेगी की कल जयन्त को अपने वश में कर के हमेशा के लिए अपनी दुनिया मे चली जाए, लेकिन तुम चिंता न करना बस कल अमावस्या की रात तुम अपने बेटे जयन्त को किसी तरह ले कर यहां आना।

ताकि उस चुडैल से छुटकारा मिल जाए। फिलहाल अभी यह लाल रंग का धागा लो जो अभिमंत्रित है। इसे अपने बेटे की दाहिनी भुजा पर बांध देना, जिससे वह चुड़ैल उसके निकट भी नहीं आ सकेगी और वो अगर आस -पास होगी तो वो चुड़ैल उसे दिखाई देने लगेगी, और जैसे ही वो दिखाई दे तो ये कलश उसके सामने करने के बाद इसका ढक्कन खोल देना और यह मंत्र उच्चरण कर देना

ॐ नमो आदेश गुरु का 
लाज रखो अपने चेले का,
मंत्र साँचा कंठ काँचा 
जो न समझे वह रह जाए बच्चा।

धौला गिरी वारो चंडै सिंह की सवारी 
जाके लँगुर है करत है अगारी,
प्याला पिए रक्त को चंडिका भवानी 
सब उपनिषद वेदबानी में बखानी 

भूत नाचे बेताल लज्जा रखे 
अपने भक्त का पीड़ चखे,
लिए हाथ भक्त बालिका दुष्टन प्रहारी
सारे दुःख देत एक पल में पछारी।

पकड़ के दे ऐसा पछाड़
काँप जाए मांस और हाड़,
मत अबार तेरे हाथ में कपाल
मार के सीने के पार कर दे भाल।

भक्षण करले जल्दी आइके
मुक्ति मिलत तब कहीं जाइके,
जाय नाहीं भूत पकड़ मारे जाँय  
तुम्हरे नाम लूँ तो करे फाएँ फाएँ।

राम की दुहाई गुरु गोरख का फंदा
नहीं भागेगा तो करेगा तोये ये अंधा,
उड़ो उड़ो चुड़ैल वाहा।
फुरो फुरो मंत्र स्वाहा ।।

यह मंत्र उच्चारण कर देना तो वह इस कलश में समा जाएगी और उसके बाद कलश का ढक्कन लगा देना तो वह चुड़ैल इसमें कैद हो जाएगी। लेकिन जैसे ही यह कार्य कर लो तो ध्यान रखना ठीक उसी वक़्त वह कलश ले कर तुम लोग मेरे पास आ जाना तो फिर मैं उस चुड़ैल को हमेशा हमेशा के लिए भस्म कर दूंगा।

इस बात की सावधानी रखना की गलती से भी वह ढक्कन न खुले अन्यथा मैं उस चुड़ैल का बाल भी बांका नही कर पाऊंगा।"

मां -" बिल्कुल बाबा मैं आपके बताए अनुसार ही सारे कार्य करूंगी।"
मां इतना कहकर, वह तुरंत लल्लन ओझा से वह मन्त्र एक कागज पर लिख लेती है। लल्लन ओझा को दोनों हाथ जोड़कर घर की ओर निकल जाती है।

वो घर पहुंच कर उस रात को उसे अपने ही कमरे में ही सोने के लिए कहती है जयन्त पर बारीकी से नजर रखती है। उस रात जयन्त ने कोई ख्वाब नहीं देखा। पूरी रात जागे होने की वजह से सुबह किसी वक़्त उसकी माँ को नींद आ जाती है।

"बचाओ...बचाओ... मुझे इस चुड़ैल से बचाओ।"

अचानक इस आवाज के साथ दोनों झटके से उठ खड़े होते हैं। जयन्त का मुंह खुला हुआ है औऱ पसीने उसका पूरा जिस्म भीगा हुआ है। वह सामने की तरफ देखता हुआ काँप रहा है। जयन्त की माँ उसे गले लगा लेती है। कुछ देर बाद जब वह सामान्य होता है तो उसकी मां कहती है- "क्या हुए बेटे तुमने वह सपना फिर से देखा क्या?"

"मां मैंने आज सपने में अजीब सा देखा। उस चुड़ैल ने मुझे और मेरे दोस्त राजीव रंजन को मारकर किसी सुनसान खेत के पास पीपल के पेड़ में एक रस्सी को गले में बांधकर लटका दिया है। मैं बार बार बचाने की आवाज लगा रहा हूँ लेकिन कोई भी मेरी मदद नहीं कर पा रहा है।"

यह कहते कि साथ जयन्त दुबारा अपनी मां के गले लग जाता है। उसे उस वक़्त डरा हुआ देखकर उसकी माँ उसे लल्लन ओझा वाली बात नहीं बताती है। पूरे दिन उसकी माँ उस पर कड़ी नजर रखती है।

जैसे ही सूर्यास्त होता है उसकी मां जयन्त से कहती है- "बेटे जाओ और जल्दी से स्नान कर के आओ। तुम्हे कुछ ज़रूरी बात बतानी है।"

यह सुनकर जयन्त नहाने के लिए चल जाता है। वो थोड़ी ही देर में नहा कर आ जाता है। जयन्त की माँ लल्लन ओझा के द्वारा बताई हल्दी लेपन की प्रथम विधि को करती है। ऐसा करते ही थोड़ी देर के बाद जो सामने परिणाम आया वो सब देखकर दोनों के होश फ़ाख्ता हो गए।

जयन्त के दाहिने हाथ और गले में जो दांतों के द्वारा काटने के निशान थे वो साफ - साफ दिखाई दे रहे थे। जयन्त की मां ने जयन्त को अब सब कुछ बताया जो कुछ लल्लन ओझा ने कहा था और फिर वो धागा जयन्त की दाहिनी भुजा पर बांध दिया। लेकिन उन दोनों को यह मालूम नहीं था की दीवारों के भी कान होते हैं। उसी कमरे के किसी कोने में उन दोनों की बाते और उपाय कोई सुन रहा था।

यह सब बातें जो जयन्त की मां ने उसे बताई थी , वो सब बातें वह चुड़ैल वहीं पास में बैठी हुई सुन रही थी। धागा बांधते ही कुछ क्षण के पश्चात वह दृश्य होकर अचानक सामने आ जाती है और फिर जयन्त जैसे ही उस कलश को उठाने की कोशिश करता है उसके पहले ही वह चुड़ैल उस कलश को कहीं दूसरी जगह छिपा देता है और अदृश्य हो जाता है।

काफी मशक्क़त के बाद उन्हें वह कलश घर के किसी कोने में प्राप्त होती है। जयन्त की माँ जैसे ही उस मिट्टी के कलश को उठाने के लिए बढ़ती है कि तभी अचानक वह कलश हवा में 4 फ़ीट ऊंची उड़ती है और धरती पर गिर कर टूट जाती है।

यह दृश्य देखकर दोनों डर जाते हैं और जयन्त की मां लल्लन ओझा को यह पूरी घटना फोन पर बताती है। उसकी पूरी बात सुनने के बाद लल्लन ओझा कहते हैं- "देखो घड़ी में रात के 9 बजे का वक़्त हो चला है। ठीक 3 घंटे बाद उसकी शक्तियां इतनी प्रबल हो जाएंगी की उसका सामना करना मुश्किल हो जाएगा। जितनी जल्दी हो सके यहां मेरे पास पहुंचो तक मैं दूसरे कलश को उसे कैद करने योग्य बनाता हूँ।"

"जी लल्लन जी हम बस 20 मिनट में आपके पास पहुंच जाएंगे।"
यह कहते ही जयन्त की माँ  फोन रखकर तुरंत अपने घर से पड़ोस के गाँव कैथल में लल्लन ओझा के घर के लिए अपनी कार में बैठ कर जयन्त के साथ निकल पड़ती है।

लल्लन ओझा पड़ोस के गांव कैथल  का ही रहने वाला था जो जयन्त के गांव अरंद से 5 किलोमीटर की दूरी पर ही था। जयन्त कार ड्राइव कर रहा था तो बाजू में उसकी माँ बैठी हुई थी। अभी गांव से निकले मुश्किल से 2 किलोमीटर ही हुआ था कि तभी अचानक किसी की आवाज आई-
"
अरे मुझे कहाँ लिए जा रहे हो। मुझे उतार तो दो कम से कम।"

यह शब्द सुनते ही दोनों के दोनों चौंक जाते हैं और एक साथ बोल पड़ते हैं- "त...तुम कौन हो औऱ कर के अंदर कैसे आई?"

"खुद ही पलट कर क्यों नहीं देख लेते की मैं कौन हूँ।"

यह आवाज जयन्त को जानी पहचानी लगती है। इस से पहले की वह समझ पाता कि यह आवाज किसकी हो सकती है कि तभी उसकी माँ पीछे पलटने को हुई। यह दखकर जयन्त जोर से चीखा- "नहीं...बिल्कुल नहीं! माँ भूलकर भी पीछे मत देखना। यह वही शातिर चुड़ैल है जिसने नाक में दम किया हुआ है। भूल से भी पीछे देख लिया तो यह अपने मनसूबों में कामयाब हो जाएगी।"

यह सुनते ही उसकी माँ वहीं रुक गई और उसने पीछे ना देखते हुए कार के रियर व्यू मिरर में देखा उसे वहां कोई भी औरत नजर नहीं आई। यह देखते ही वह समझ गई कि जयन्त बिल्कुल सच सच कह रहा है।

"तो तुम दोनो नहीं मानोगे? तुम्हारा हाल भी उसी कलश की तरह होगा। मैं कहती हूँ गाड़ी रोको नहीं तो पीछे देखो।"

उस चुड़ैल की बात सुनते ही जयन्त ताव में आ जाता है क्योकिं आज वह अकेले नहीं था, उसके साथ उसकी माँ भी थी। जयन्त गुस्से में बोलता है-

"तुझे जो करना है कर ले। मैं आज भी तेरी बात नहीं मानने वाला।"

"भुगतोगे सब के सब भुगतोगे इसका परिणाम।" यह कहते वो ऊनी कर्कश हंसी के साथ हंसती है कि ठीक अगले ही पल....

'धाड़sss.... फटाकsss...'
इस आवाज के साथ अचानक जयन्त ने तेज ब्रेक मार के कार रोक देता है। जयन्त के कार के विंड ग्लास पर खून की छीटों से लाल हो चुका था। उस चुड़ैल अपनी दुष्ट शक्तियों के दम से रास्ते में एक जानवर को मार कर कार की बोनट पर फेंक दिया था। अचानक से गिरे उस मृत जानवर को देखकर जयन्त कार को रोककर जैसे ही बाहर निकलने को होता है उसकी माँ उसका हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहती है-

"नहीं...बिल्कुल नहीं। खबरदार जो इस कार से बाहर निकले तो। यह इस चुड़ैल की चाल है कि हम तय वक़्त पर लल्लन ओझा से न मिल पाए। तुम्हे यह रक्षा कवच होने की वजह से प्रत्यक्ष रूप से हानि तो पहुंचा नहीं सकती लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से हानि पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। इसलिए पुत्र तुम अब सावधान हो जाओ और आगे बढ़ो।"

जयन्त साइड विंडो से बाहर झांकते हुए देखता है और अपनी माँ से कहता है- "लेकिन माँ कार के अगले पहिए के नीचे कोई काले रंग का कुत्ता दबा पड़ा है। उसके धड़ के ऊपर मेरे कार का अगला टायर चढ़ा हुआ है और उसका सिर कट कर कार के बोनट पर है।"

"मत भूलो की यह उस चुड़ैल का छलावा भी हो सकता है। यदि उसका सिर कार के बोनट पर है तो इसका मतलब वह मर चुका है और मेरे हुए पशु पर अभी दया करोगे तो हम दया के पात्र बन जाएंगे। तुम बस किसी तरह यहां से निकलने की कोशिश करो।"

यह सुनते ही जयन्त ने कार को थोड़ा पीछे किया और स्पीड के साथ आगे बढ़ता हुआ उस जानवर के जिस्म पर
फच्चाकsss... की आवाज करता हुआ कार को भगा लेता है।


                                                अध्याय (6):- अनुस्ठान

इस घटना के बाद वैसा कुछ नहीं होता जिस से दोनो विचलित हो जाए। थोड़ी ही देर में जयन्त की मां जयन्त को साथ लेकर बाबा के घर पहुंच जाती है। जैसे ही अंदर पहुंचते हैं सामने लल्लन ओझा सारी तैयारी के साथ वहां इंतजार कर रहा होता है। जैसे ही लल्लन ओझा की नजर उन दोनों पर पड़ती हैं। वो सामने बने सेफद गोल घेरे में जयन्त को कलश ले कर बैठा देता है और हिदायत देते हुए कहता है-

"देखो जब तक मैं आदेश न दूँ इस घेरे से बाहर नहीं आना। मैं जैसे यही अपने मंत्र खत्म करूँगा तुम तुरंत इस कलश के ढक्कन को खोल देना और उस चुड़ैल के इसके अंदर समाते ही ढक्कन बन्द कर देना।"

इतना सुनते ही उसने हामी में अपनी खोपड़ी हिला दिया और उस सफ़ेद घेरे में उस कलश को लेकर बैठ गया। उसके बैठते ही जो मंजर उनकी आंखों के सामने था वह देखकर वे दोनों बहुत घबरा जाते हैं। उतने में ही बीच में वह चुड़ैल न जाने कहां से वहाँ आ जाती है।

उसको आया देखकर जयन्त की माँ घबरा जाती हैं और डर के मारे जमीन पर गिर पड़ती हैं। उनके इस तरह गिरते ही वह चुड़ैल भी आस पास कहीं नजर नहीं आती।

"मरोगे सब के सब। सब के सब मरोगे आज।", अचानक जयन्त की माँ अजीब सी आवाज निकालती हुई दोनों की तरफ घूरने लग जाती हैं। दोनों के कुछ समझ नहीं आता कि यह क्या हुआ?

लल्लन ओझा ने जब जयन्त की माँ की तरफ देखा तो उसकी मां की आंखे चढ़ी हुई हैं, जीभ ठुड्ढी तक लटकी हुई थी औऱ वह बहुत तेज तेज सांसे ले रहीं थी।

लल्लन ओझा ने यह हुलिया देखा तो उन्हें यह समझते देर न लगी कि अब उसके अंदर वह भयानक चुडैल समा चुकी है।

वह चुड़ैल अट्ठाहस करती हुई जयन्त की ओर बढ़ रही थी। यह सब देखकर लल्लन ओझा उसे पकड़ लेते हैं और आगे जाने से रोकते हैं। अचानक उस चुड़ैल के हाथ बढ़ने लगते हैं और वह उस घेरे के अंदर बिना गए ही जयन्त के हाथ मे रखे हुए कलश को पकड़ लेती है और दूसरे हाथ से लल्लन ओझा को पकड़ते हुए हवा में 4 फुट ऊपर धकेल देती है। लल्लन ओझा उस कमरे में पड़ी कोने में लकड़ी के टेबल पर गिर पड़ते हैं।

वह दुबारा हिम्मत जुटाकर अपने शरीर को घसीटते हुए बोलता है- "जयन्त बेटे! वह चुड़ैल इस घेरे के अंदर नहीं जा सकती थी, उसे इस बात का की जानकारी थी इसलिए उसने अब तुम्हारे माँ के शरीर मे पनाह ली है और वह कलश को तुम से हथियाकर फिर से नष्ट करना चाहती है। यह कलश जिसके हाथ मे होता है उसे ही वह मन्त्र बोलना पड़ता है। इसलिए जल्दी से उस मंत्र का उच्चारण करो ताकि वह इस कलश में कैद हो सके।"

यह सुनते ही जयन्त लगभग रुआंसी आवाज में बोला- "लेकिन ओझा जी वह मंत्र बहुत लंबा है और मैं बिना पढ़े नहीं बोल सकता। वह पर्ची मेरे शर्ट के जेब मे पड़ी है। मुझे इस से मुक्त करवाओ तभी मैं पढ़ पाऊंगा।"

लल्लन ओझा खुद को बहुत ही बेबस समझ रहे थे। उन्हें उस कलश के अंत के साथ सभी का अंतिम समय नजर आ रहा था। उन्होंने इस अनहोनी के बारे में सोचा ही नहीं था कि वह धूर्त चुड़ैल कुछ ऐसा कर बैठेगी।

अचानक उस चुड़ैल ने जयन्त के हाथों से वह कलश ले लिया और और बोली- "हा हा हा बड़े आये थे मुझे मुक्ति दिलाने वाले। आओ अब तुम सबको इस मिट्टी के कलश की तरह मुक्त करूंगी।"

यह कहते ही उस चुड़ैल ने उस कलश को हवा में फिर से उछाल दिया। यह दृश्य देखते ही दोनों के आंखों में अनायास ही आंसू छलक उठे। तभी लल्लन ओझा ने अपनी जिस्म की सारी ऊर्जा एकत्रित की और उछलते हुए कलश को ज़मीन पर गिरने से पहले ही लपक लिया।

उस कलश को जयन्त की तरफ उछालते हुए बोले- "बस! दुष्ट अब बहुत हुआ तेरा छलावा। अब तुझे कोई नहीं बचा सकता।" यह कहते के साथ वहीं पास में पड़ी झाड़ू पर कुछ अक्षत और काले तिल को फेंकते हुए यह मंत्र बुदबुदाते हैं-

ह्वैं हूं प्रेत प्रेतेश्वर आगच्छ आगच्छ  प्रत्यक्ष दर्शय दर्शय फट |
ओम् हां हीं हूं हौं ह: सकल भूत-प्रेत, चुड़ैल-डायन दमनाय स्वाहा |”

यह मंत्र उच्चरण करने के बाद लल्लन ओझा उसे झाड़ू से मरते हैं। उस झाड़ू के पड़ते ही वह दर्द से कराह उठती है मानो जैसे उसे कोई चाबुक से मार रहा हो। जयन्त के यह समझ मे तो नहीं आ रहा था कि यह झाड़ू का कमाल है या चाबुक का लेकिन जिसका भी असर था अब वह लगभग खुश से दिख रहा था।

"बोल तू कौन हैं? कहाँ से आई है क्यों तंग कर रही है इस मासूम को? बता इसने क्या बिगाड़ा है तेरा?"
यह कहते ही लल्लन ओझा उस पर झाड़ू से टूट पड़ते हैं। लेकिन वह चुड़ैल सिवाय चीखने के कुछ भी नहीं कह रही थी। अचानक उसने मुंह खोला और बोली-

"नहीं...छोडूंगी किसी को नहीं छोडूंगी। सबको मार डालूंगी।"
यह कहकर वो जोर जोर से हंसने लगी। अब बड़ी विचित्र स्थिति बन चुकी थी। कभी वह झाड़ू के प्रहार से होने वाले दर्द से बिलखती तो कभी वह अट्टहास कर के यूँ हंसती जैसे उस पर इन सबका कुछ असर नहीं होने वाला।

बात न बनता देख अगले ही पल लल्लन ओझा खड़े होते हैं और कोने में पड़ी एक कांच की शीशी ले कर आते हैं। जस कांच में लहसुन का पानी था जिसे गंगालजल के साथ मिश्रण कर के बनाया गया था।

उन्होंने उस बोतल का ढक्कन खोला और बूँद बूँद उसकी खोपड़ी पर टपकाने लगे। जैसे ही पहला बूँद उज़के जिस्म पर पड़ा वह ऐसे तड़पने लगी मानो जैसे 440 वोल्ट की बिजली प्रवाहित कर दी गई हो। वह तड़पते तपडते बोली-

"ठहरो... ठहरो मैं सब बताती हूँ। लेकिन....!"

"लेकिन क्या बोल....जल्दी बोल वरना कर दूं तुझे भस्म?"

"लेकिन मेरी एक इच्छा पूरी करो।"

"कैसी इच्छा? बोल जल्दी बोल। अब तू क्या चाहती है?"

"मुझे एक कटोरा खून चाहिए। लाल और गाढ़ा खून...! फिर मैं सब बता दूंगी जो भी तुम चाहते हो।"

किस्मत से लल्लन ओझा के घर के बाजू में ही दुकान थी जहां से लोग मुर्गे और बकरे का मांस ले कर जाते थे। आसानी से वहां से एक कटोरे खून का इंतज़ाम हो गया।

अगले ही पल लल्लन ओझा ने वह कहीं से भरी लबालब कटोरे को उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा- "ले जल्दी अपनी प्यास बुझा और बता तू कौन है?"

खून से भरे कटोरे को देखकर उनकी आंखें चौंधिया गईं और उसने झट से उसके हाथों से छीनते हुए चप...चप...चप...की अजीब सी आवाज करते हुए गट...गट... कर के पी जाती है। पीने के बाद वह कटोरे को घुमा कर लल्लन ओझा की तरफ फेंक देती है।

लल्लन ओझा अगर समय रहते नहीं झुकता तो उसकी खोपड़ी पर ज़रूर टकरा जाती। वह वहीं से झुके झुके उस चुड़ैल को देखने लगा जाता है। अचानक चुड़ैल जोर जोर से हंसने लग जाती है। हंसते हंसते फिर रोने लग जाती है। थोड़ी देर में जब वह शांत हुई तो बोलती है-
"
मेरा नाम मेहजबीन शेख है। मैं यहां से 150 किलोमीटर दूर स्थित किशनगंज में रहती थी। 21 वर्ष पहले मेरे जन्म होने के कुछ दिनों बाद ही मेरे वालिद मुझे और मेरी अम्मी को छोड़ कर पड़ोस की एक महिला नुसरत बानो के साथ भाग कर दुबई चले गए।

मेरी अम्मी ने मेरा लालन पालन बड़ी ही ज़िम्मेदारी से किया। वो सिलाई, कढ़ाई के काम मे निपुण थी। मैं अपनी अम्मी की इकलौती संतान थी। वो मुझे देखकर जी रहीं थी। मैंने अपनी ज़िंदगी के 17 बसन्त देख लिए थे।

मेरी अम्मी के साथ लाख बुरा हुआ हो लेकिन उन्होंने किसी से अपनी मुंह से शिकायत नही किया। मेरी अम्मी ने किसी का बुरा नहीं चाहा था लेकिन उन्हें क्या पता था कि मैं ही उनकी ज़िन्दगी में ऐसा मोड़ आएगा जहाँ से वो मुझे भी हमेशा हमेशा के लिए छोड़ जाना पड़ेगा।

आज से ठीक 4 साल पहले दिसंबर के महीना था और सर्द रात में ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। मेरी अम्मी की पिछले 7 दिनों से डेंगू से पीड़ित थीं ऊपर से 2 दिन से लगातार अनावश्यक रूप से बारिश ने बेहाल किया हुआ था।

आधी रात को जब मेरी नजर मेरी माँ पर पड़ी तो देखा वो ठंड से कांप रहीं थी। जब मैं उनके निकट गई तो उनका जिस्म बुखार से किसी जलती भट्टी की तरह तप रहा था। उनका इलाज सरकारी अस्पताल के एक डॉक्टर से चल रहा था, जो पास के गांव में ही रहते थे। मैंने देखा कि उनकी दवाई खत्म हो चली थीं।

मैंने उन्हें आश्वशन देते हुए कहा- "मां आपको तो बहुत तेज बुखार है। मैं पास के गांव के डॉक्टर से आपके लिए दवा ले कर आती हूँ।"
मेरी बात सुनने के बाद मेरी माँ कराहते हुए आवाज में बोली, "लेकिन बेटी इतनी रात हो गई है और बारिश भी बहुत तेज है। सुबह तक रुक जा क्या पता मैं ठीक हो जाऊं या बारिश रुक जाएगी।"

"नहीं माँ सुबह तक कहीं देर हो गई तो। मेरे सिवा आपका है ही कौन? बारिश तो पिछले 2 दिनों से हो रही है। नहीं...नहीं...अब मैं और इंतजार नहीं कर सकती।"

यह कहकर मैं वहां से उतनी तेज बारिश में निकल पड़ी। उस वक़्त मेरी अम्मी ने बहुत मना किया लेकिन मैंने उनकी एक न सुनी।
पास का गांव जहां डॉक्टर रहता था मेरे गाँव से लगभग 2 किलोमेटर दूर था। मेरे पास वहां जाने का कोई खास साधन नहीं था इसलिए मैं कुछ पैसे ले कर अकेले ही पैदल चल पड़ी थी।

बारिश इतनी तेज थी कि मानो जैसे किसी प्रलय को निमंत्रण दे रही हो। मैं अपने दुपट्टे से मुंह और सिर को ढ़ककर चल रही थी। आज पहली बार यह रास्ता इतना सुनसान लग रहा था मानो जैसे इधर भूतों का बसेरा हो। राह में जो इक्का दुक्के कुत्ते भी नजर आते थे, वो इस मूसलाधार बारिश की वजह से कहीं न कहीं दुबके बैठे थे।

बारिश की वजह से मैं सिर से ले कर पांव तक अब भीग चुकी थी। अचानक मेरा पाँव किसी गड्ढे में पड़ा और मैं अपने शरीर पर संतुलन नहीं रख पाई और उस गड्ढे में गिर पड़ी। खुदा का शुक्र था कि गड्ढा ज़्यादा गहरा नहीं था मैं दुबारा से उठ कर खड़ी हो जाती हूँ। लेकिन मेरे इस तरह अचानक गिरने की वजह से मेरी मुट्ठियाँ खुल गई थी और जो पैसे में घर से ले कर आई थी वह वहीं कहीं गिर गया था।

मैंने बहुत कोशिश किये लेकिन मैं दुबारा उन पैसों को ढूंढ नहीं पाई। मैं काफी देर तक रोती रही। एक बार मेरे मन मे आया की मैं घर वापिस लौट जाऊं लेकिन माँ की दयनीय स्थिति देखकर खुद को दृढ़ किया और वापिस खड़ी हुई।

मैने दुपट्टे से अपने बदन और अपने मुखमण्डल को साफ किया। मेरा डॉक्टर के पास पहुंचना बहुत ज़रूरी था। मैं तेज कदमों से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ी जा रही थी। तकरीबन पौन घण्टे में मैं डॉक्टर के घर के दरवाजे पर थी। मेरे बार बार दरवाजा ठकठकाने की वजह से दरवाजा खुला और मुझे डॉक्टर देखते चौंक गए और बोले- "अरे मेहजबीन बेटी तुम यहाँ इतनी रात क्या कर रही हो? तुम्हारी यह हालत किसने की?"

"डॉक्टर साहब वो अम्मी....!"
मेरे इतना कहते ही डॉक्टर साहब बोले- "रुको पहले तुम अंदर आ जाओ फिर बताओ।"

उनकी यह सहानुभूति देख कर मुझे अच्छा लगा कि वो डॉक्टर होने के साथ साथ एक अच्छे इंसान भी हैं। उन्होंने मेरी सारी परेशानी गंभीरता से सुनी और वो बोले- "देखो बेटी इस वक़्त मैं तुम्हे कुछ दवाईयां दे रहा हूँ इसे तुम जाते ही उन्हें दे देना। मेरा यकीन मानो ये दवाईयां सुबह तक अपना असर दिखा देंगी और तुम्हारी अम्मी यकीनन पहले से बेहतर हो जाएंगी।"

यह बोलने के साथ वह डॉक्टर देखते हैं कि मेरा ध्यान कहीं और था यो उन्होंने मेरे कंधे को पकड़कर हिलाते हुए कहा - "क्या हुआ मेहजबीन तुम कहाँ खोई हुई हो? कुछ परेशानी है तो बोलो!"

डॉक्टर की बात सुनते ही मैंने संकुचित भाव से कहा- "जी...जी...बात यह थी कि मैं दवा के लिए पैसे ले कर आई थी, लेकिन वो मेरी लापरवाही की वह से रास्ते मे कहीं....!"

इतना सुनते ही डॉक्टर बिदक गए और लगभग ग़ुस्से में बोले- "खबरदार! जो तुमने पैसों की बात की। मैं गरीब एयर असहाय लोगों से पैसे लेना पाप समझता हूं। तुम यह दवा ले कर फ़टाफ़ट जाओ ताकि समय से उनको दवा दे सको।"

"मैं बस अभी जाती हूं और उन्हें जाते के साथ दवाइयाँ दे देती हूं।"

"ठहरो मेरी आखिरी बात सुनती हुई जाओ। बाहर मैसम बहुत खराब है। यह लो छतरी ले कर जाओ और मेरी एक बात का ध्यान रखना।"

"कौन सी बात डॉक्टर साहब?"

"तुम्हारे पास एक बकरी है ना?"

"हाँ जी है तो लेकिन उसका क्या?"

"उन्हें सुबह-शाम 100 मिलीमीटर बकरी का दूध जरूर दो। क्योंकि तुम्हारी माँ को डेंगू है जिसमे मरीज की प्लेटलेट्स कम जो जाती हैं। इस रोग में बकरी का दूध रामबाण साबित होगी। यह सबसे कारगर दवाई है। अब तुम जाओ और कल शाम को बताना उनकी स्थिति में कितना सुधार हुआ।"

उनकी बात सुनकर मैं अपने गांव की तरफ रुख कर देती हूं। रास्ते की सर्द हवा मानों मेरी शरीर को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी।
लेकिन मैं इस ठंड की परवाह किये बिना निर्भीक चले जा रही थी।

मेरे पैरों की आहट भी मुझे डरा रही थी। ऐसा लग रहा था मानो मैं अकेले नहीं मेरे पीछे कोई और भी है। थोड़ी देर में मुझे महसूस हुआ कि मानो जैसे कोई मेरे पीछे पीछे चला आ रहा हो। मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि पीछे पलट कर देखूं। इतनी देर रात किसी के पीछे होने के एहसास और इस बारिश वाली ठंड के मौसम की वजह से मेरी सांसे भी ज़मने को हो गईं थी।

मैं थोड़ी दूर चली ही थी कि वह आहत मुझे अपने बिल्कुल करीब महसूस होने लगी। मैंने हिम्मत कर के पीछे देखा तो मुझे कोई भी नजर नहीं आया। मैं बार बार मुड़कर पीछे देख रही थी लेकिन मुझे किसी की मौजूदगी का एहसास नहीं हुआ।

तभी अचानक मेरे आंखों पर रोशनी चमकी और मैंने अपने दोनों आंखों को ढक लिया। जब आंखों को खोल कर देखा तो मैं चौंक कर रह गई। मेरे सामने एक बड़ी सी कार रुकी थी। कार के रुकते ही उसमे में कुछ बन्दे फ़टाफ़ट निकलने और मुझे जबर्दस्ती अमानवीय व्यहार करने लगे। मैंने जब उस बात का विरोध किया तो मुझे उठाकर अपनी कार में बैठकर वहां से रफ़्फ़ु चक्कर हो गए।

वो मुझे उस रात वहां से उठाकर वहां से 150 किलोमीटर दूर मिर्जापुर के किसी भरहेता गाँव मे ले आए।  उन वहशी दरिंदो ने मुझे वहीं किसी खंडहर में कैद कर के रख दिया था। वो मेरे साथ कुछ दिन और रात तक मेरी इज्जत को तार तार करते रहे। मैंने लाख मिन्नतें की मेरी माँ बीमारी से जूझ रही है लेकिन उन कमीनो ने मेरी एक न सुनी। मैं 17 वर्ष की एक कमसिन लड़की उन चारों अधेड़ इंसानो के गुनाहों का भार नहीं झेल पाई और असहनीय पीड़ा को न झेल पाने को वजह से अल्लाह को प्यारी हो गई।

उन दरिंदो ने आनन फानन में मेरी लाश को वरुणा नदी से कुछ दूर जाने पर एक पीपल का पेड़ है और ठीक उसके पीछे कुवां हैं वहां डाल दिया। जैसे ही वह मेरी लाश को उस कुवें में डाल कर पीछे मुड़ रहे थे कि वहां किसी शख्स को खड़े देखकर चौंक गए।

वह शख्स और कोई नहीं जयन्त के पापा मयन्त कुमार श्रीवास्तव थे। उन्होंने मेरी लाश को ठिकाने लगते हुए देख लिया था। वह उन तीनों का विरोध करने लगे और बोले- "देखो तुम सबने यह ठीक ठीक नहीं किया है और मैं तुम्हे यहां से जाने नहीं दूंगा। मैं अभी पुलिस को जाकर सब सच सच बता दूंगा।"

उसकी बात सुनकर वह चारो उनपर बहुत जोर से हंसे औऱ उसे समझाने के लिए आगे बढ़े। जैसे ही वो चारो आगे बढ़े उनमें से एक को देखकर जयन्त के पापा चौंक जाते है और बोलते हैं- "अरे ठाकुर वीरेन्द्र प्रताप आप? ओह्ह तो आप हो इस घटना के पीछे।"

यह सुनते ठाकुर जोर जोर से हंसता है और बोलता है- "जा मयन्त जा बोल दे पुलिस को। लगता है शायद तू भूल गया की वह पुलिस को मैं जेब ले कर घूमता हूँ। मगर तू यह कैसे भूल गया कि तू मेरे फेंके हुए टुकड़ो पर पल रहा है। पिछले 7 सालों से तेरे पर मूल से ज्यादा तो सूद चढ़ चुका है।"

यह सुनने के बाद मयन्त ठाकुर के पैर पकड़कर मिमियाते हुए स्वर में कहता है- "लेकिन हुजूर किसी की जान लेना तो अपराध है ना?"

"तो अब तू मुझे सिखाएगा की क्या सही है और क्या गलत? तुझे 7 दिन की मोहलत देता हूँ, यदि तेरे अंदर ज़रा सा भी ज़मीर ज़िंदा है तो मेरे सारे उधार चुकता कर मैं अपने गुनाह कुबूल कर लूंगा और खुद पुलिस के हवाले कर दूंगा लेकिन यदि तू ऐसा न कर सका तो इसी कुवें से कूदकर तुझे जान देनी होगी। बोल कुबूल है।"

"हां ठाकुर मुझे कुबूल है। मैं 7 दिनों के अंदर अपनी सारी ज़मीन बेचकर तेरा उधार चुकता करूँगा।"

यह सुनते ही ठाकुर उसे अपने पांव से ठोकर मरता है और वहां से चला जाता है। उधर ठाकुर अपनी हवेली आते ही मयन्त का हुक्का पानी बन्द करवा देता है। मयन्त की खेती से इतना अनाज की पैदावार नहीं हो पाती थी कि वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके इसलिए उसकी पत्नी ठाकुर के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जाया करती थी।

मयन्त की घरवाली अव्वल दर्जे की पढ़ाकू थी इसलिए उसने शादी करने से पहले प्रथम श्रेणी में बी.ए. कर लिया था। लेकिन गरीब इंसान पढ़ाई कर के ही सीमित रह जाता है और उसे एक उम्र तक विवाह करवाना ज़िम्मेदारी से ज्यादा बोझ नजर आने लगती है और समाज के बनाए गए उस ढांचे में खुद से सामंजस्य बैठा लतीं है।

7 दिनों बाद भी वह ठाकुर का बाल बांका न कर पाया तो वह एक रात उस कुवे की तरफ चल पड़ा। वह काफी देर तक लाचार और बेसहाय वहीं मौन खड़ा रहा और खुद से बोला- "धिक्कार है मुझ जैसे गरीब का जो किसी को न्याय भी न दिल सका। मैं जीते जी भी उस वहशी ठाकुर का कुछ नहीं बिगाड़ पाया। इस धरती पर हम जैसे गरीब दुखियों की भगवान भी सुनने वाला नहीं है। मैं अब ऐसी जिल्लत की ज़िंदगी और नहीं जी सकता।"

यह कहते ही मयन्त कुमार श्रीवास्तव अपने साथ लाए मिट्टी के तेल को अपने जिस्म पर छिड़कते कर आग लगा ली और उस कुवें में कूद कर अपनी जान दे दी। आज भी उनका और मेरे जिस्म के कंकाल वहां अपनी बेगुनाही साबित कर रहे हैं और मुक्ति के लिए फरियाद कर रहे हैं।

उनकी आत्मा आज भी वहां भटक रही है और गांव के काफी लोगो ने वहां कुवे के आस पास आग जैसे गोले को जलते हुए देखा है लेकिन पास जाते ही उन्हें कुछ भी एहसास नहीं होता। वह कुवां जिस जगह है वह बहुत ही अजीब जगह पर है। वहां से मिर्जापुर, बनारस, जौनपुर इन तीनो जिले की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। यहां अक्सर एक से एक अमानवीय कृत्य को देखते आये हैं लेकिन कोई भी किसी के खिलाफ शिकायत नही करता। सबको अपने जान की पड़ी है।

परन्तु मैं उनकी तरह शांत या सब किस्मत का खेल मान कर चुप रहने वाली में से नहीं। मैंने ठाकुर और उसके तीनो साथी को भी मौत के घाट उतार कर उसी कुवें में डाल दिया है। मैं आगे भी चुप रहने वाली में से नहीं उस वीराने में जो भी रात को भटकेगा मैं उसे ज़िंदा नहीं छोडूंगी। मार डालूंगी मैं सबको।"

यह कहकर वह लल्लन ओझा पर प्रहार करती है और उसके हाथ से झाड़ू छूट कर दूर गिर जाती है। वह चुड़ैल अचानक जयन्त की माँ के शरीर से बाहर निकल जाती है और लल्लन ओझा के छाती पर बैठ जाती है और अपने नाखूनों को लल्लन ओझा के कंधे में घूँसेड डालती है।

लल्लन ओझा दर्द से बिलबिला उठते हैं। मगर वह चुड़ैल उज़के कंधे से खून के कुछ बूंदे निकाल कर लल्लन ओझा के चेहरे पर लगा देती है। अचानक से उसके जीभ लंबे हो गए और वह लल्लन ओझा के चेहरे पर लगे रक्त की बूंदों को चाटने लगती है जैसे इस खून की बूंदों से उसकी तृष्णा मिट रही हो।

"वाह...वाह...बस यही खून तो मुझे चाहिए। यह खून ही यो मुझे उर्जावान बनाता है और मुझे जवान रखता है। भला मैं इसे क्यों न चखूँ।" यह कहते के साथ वह अपने चारों नुकीले दांत लल्लन ओझा के कंधे में घूँसेड देती है जहां उसने अपनी अपने लंबे लम्बे नाखून घूँसेड थे।

इस बार पूरी जोर लगाकर लल्लन ओझा बोलते हैं- "अरे मूर्ख! कब तक तमाशा देखेगा। अब जल्दी से अपनी ऊपर की जेब से वो पर्ची निकाल और उस मन्त्र का उच्चारण कर। यह चंडालन तब तक नहीं उठेगी जब तक इसकी प्यास नहीं बुझेगी। मैं तब तक इसकी प्यास बुझाता हूँ लेकिन मेरे शरीर मे सारे रक्त चूसने से पहले अपने कार्य को अंजाम दे देना।"

यह सुनते ही जयन्त अपनी माँ के तरफ देखता है वह निढाल सी ज़मीन पर पड़ी हुई थी। उसने एक लंबी सांस ली और फुर्ती से अपनी जेब से वह पर्ची निकलता है और उस कलश के ढक्कन को खोलकर उस मंत्र को जोर जोर से बोलने लगता है

ॐ नमो आदेश गुरु का 
लाज रखो अपने चेले का,
मंत्र साँचा कंठ काँचा 
जो न समझे वह रह जाए बच्चा।

धौला गिरी वारो चंडै सिंह की सवारी 
जाके लँगुर है करत है अगारी,
प्याला पिए रक्त को चंडिका भवानी 
सब उपनिषद वेदबानी में बखानी 

भूत नाचे बेताल लज्जा रखे 
अपने भक्त का पीड़ चखे,
लिए हाथ भक्त बालिका दुष्टन प्रहारी
सारे दुःख देत एक पल में पछारी।

पकड़ के दे ऐसा पछाड़
काँप जाए मांस और हाड़,
मत अबार तेरे हाथ में कपाल
मार के सीने के पार कर दे भाल।

भक्षण करले जल्दी आइके
मुक्ति मिलत तब कहीं जाइके,
जाय नाहीं भूत पकड़ मारे जाँय  
तुम्हरे नाम लूँ तो करे फाएँ फाएँ।

राम की दुहाई गुरु गोरख का फंदा
नहीं भागेगा तो करेगा तोये ये अंधा,
उड़ो उड़ो चुड़ैल वाहा।
फुरो फुरो मंत्र स्वाहा ।।

ह्वैं हूं प्रेत प्रेतेश्वर आगच्छ आगच्छ,
 
प्रत्यक्ष दर्शय दर्शय फट |
ओम् हां हीं हूं हौं ह: सकल भूत-प्रेत,
चुड़ैल-डायन दमनाय स्वाहा |”

जैसे ही यह मंत्र खत्म होता है वह चुड़ैल एक काले धुंए में परिवर्तित हो जाती है और किसी हवा की तरह उड़ती हुई उस कलश में समा जाती है। जयन्त तुरंत इस कलश को ढक्कन लगा देता है।

अगले ही पल लल्लन ओझा भी कराहते हुए उठ खड़े होते हैं। उनके उठते ही जयन्त की मां भी खड़ी हो जाती है। तीनों उसी वक़्त कार में बैठकर वरुण नदी के पास पीपल के पेड़ के पीछे वाले कुवें के पास जाते हैं। कुछ स्थानीय लोगों की मदद से वहां उस कुवें से लाशों को निकलवाते हैं। लेकिन वहां लाश की जगह कुछ कंकाल मिकते हैं जिनकी सीनाख्त कर ली जाती है। वहां उस कुवें से 5 नर और एक मादा के कंकाल को उनके धर्म के अनुसार अंत्योष्टि कर के इस लोक से मुक्ति दिला दी जाती हैं।

उस कलश को उसी कुवें में डाल कर मिट्टी से पूरी तरह कुवें को ढककर हमेशा के लिए बंद कर दिया जाता है। जयन्त और उसकी माँ लल्लन ओझा का आभार व्यक्त करती है और वापिस अपने कार में पहुंच जाते हैं।


                                                अध्याय (7):- आरम्भ या अन्त

"ओह्ह मां रात के तीन बज गए हैं लेकिन चलो शुक्र है कि उस चुड़ैल से पीछा तो छूटा।"
"
हाँ बेटे चाहे लोग आज भी विश्वास कर न करे लेकिन मैं यकीन के साथ कहती हूँ कि जब इस दुनियां में भगवान को मानते हो तो शैतान के वजूद को झुठलाना नहीं चाहिए। जिस तरह हम पॉजिटिव शक्तियों को चाहते हैं उसी तरह हमे नकरात्मक शक्तियों के लिए भी हर पल तैयार रहना चाहिए।"

कुईंsss... कुईंsss....

जयन्त की मां ने अभी इतना कह ही था कि अचानक जयन्त ने झटके के साथ अपनी कार रोक दी। अचानक इस तह ब्रेक मारने से जयन्त की माँ को सिर पर जोरदार चोट लगी और वह गुस्से में बोली- "अरे अब क्या हुआ जो इस तरह से कार रोक दी।"

जयन्त के मुंह से जब कोई जवाब नहीं आया तो इसने अपने बेटे की तरफ देखा जो सड़क के तरफ अपनी उंगलियों से इशारा कर रहा था। जयन्त की माँ ने देखा तो उसके होश फाख्ता हो गए।

कोई औरत काली साड़ी में एक हाथ मे लालटेन को थामे सड़क को पार कर रही थी। उस औरत ने पलक झपकते ही सड़क को पार कर लिया। दोनों तले उंगलियां दबोच कर उस औरत को देख रहे थे। वह औरत अब धीरे धीरे उनकी तरफ बढ़ रही थी।

जयन्त ने इस बार हिम्मत की और गाड़ी को राकेट की तरह भगाने लग गया। अब वह साया सड़क के बीचो बीच थी लेकिन उसने कार रोकने की जगह उसको उस से उड़ा देना ही बेहतर समझा औऱ एक्सीलेटर पर पांव दबा दिए। अगले पल वह साया उस कार के आर पार निकल गई जैसे वह कोई धुआँ हो और निकलते निकलते कह कह गई-
"
अरे बाबू तनिक पीछे तो देख लो एक बार।"

उसकी माँ पीछे पलटने को होती है तभी जयन्त बोल पड़ता है- "नहीं...मां अब डरने की जरूत नहीं है। अब उस चुड़ैल का खेल खत्म हो चुका है। जिसे तुमने देखा वह मात्र छलावा है और कुछ नहीं।"

यह सुनते ही दोनों एक साथ हंस पड़ते है। काफी समय के बाद दोनो एक साथ हंसते हुए अच्छे लग रहे थे। कुछ अनिष्ट न होने पर दोनों हल्की सी मुस्कान और खुशी के साथ अपने घर की ओर चले जाते हैं ।।

*
समाप्त*

 

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